'भाषा बहता नीर'। भाषा एक प्रवाहमान नदी। भाषा बहता हुआ जल। बात बावन तोले पाव रत्ती सही। कबीर की कही हुई है तो सही होनी ही चाहिए। कबीर थे बड़े दबंग और उनका
दिल बड़ा साफ था। अतः इस बात के पीछे उनके दिल की सफाई और सहजता झाँकती है, इससे किसी को भी एतराज नहीं हो सकता।
बहुत कुछ ऐसी ही स्थिति है कबीर की उक्ति की भी, ''संस्कृत कूप जल है, पर भाषा बहता नीर।'' भाषा तो बहता नीर है। पर 'नीर' को एक व्यापक संदर्भ में देखना होगा।
साथ ही संस्कृत मात्र कूप जल कभी नहीं है। कबीर के पास इतिहास-बोध नहीं था अथवा था भी तो अधूरा था। इतिहास-बोध उनके पास रहता तो 'अत्याचारी' और
'अत्याचारग्रस्त' दोनों को वह एक ही लाठी से नहीं पीटते। खैर, इस अवांतर प्रसंग में न जाकर मैं इतना ही कहूँगा कि संस्कृत की भूमिका भारतीय भाषाओं और
साहित्य के संदर्भ में 'कूपजल' से कहीं ज्यादा विस्तृत है। वस्तुतः उनके इस वाक्यांश, 'संस्कृत भाषा कूपजल' का संबंध भाषा, साहित्य से है ही नहीं। यह
वाक्यांश पुरोहित तंत्र के खिलाफ ढेलेबाजी भर है जिसका प्रतीक थी संस्कृत भाषा। इस संदर्भ में 'संस्कृत कूप जल' वाली बात भ्रामक है। और दूसरे अंश 'भाषा बहता
नीर' से संयुक्त होने के कारण अनेक भ्रमों की सृष्टि करती है। और कबीर की भाषा-संबंधी 'बहता नीर' सं संयुक्त होने के कारण अनेक भ्रमों की सृष्टि करती है। और
कबीर की भाषा-संबंधी 'बहती नीर' वाली 'थीसिस' स्वीकारते हुए भी समूचे कथन के संदर्भ में कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक हो जाता है।
संस्कृत कूपजल मात्र नहीं। उसकी भूमिका विस्तृत और विशाल है। वह भाषा-नदी को जल से सनाथ करने वाला पावन मेघ है, वह परम पद का तुहिन बोध हैं, वह हिमालय के हृदय
का 'ग्लेशियर' अर्थात् हिमवाह है। जब हिमवाह गलता है तभी बहते नीर वाली नदी में जीवन-संचार होता है। जब उत्तर दिशा में तुषार पड़ती है तो वही राशिभूत होकर
हिमवाह का रूप धारण करती है। जब हिमवाह पिघलता है जो नदी जीवन पाती है, अन्यथा उसका रूपांतर मृतशय्या में हो जाता है। हिमालय दूर है, हिमवाह नजरों से ओझल है,
पर जानने वाले जानते हैं कि यह तृषातोषक अमृत वारि जो गाँव-नगर की प्यास बुझाया हुआ सागर-संगम तक जा रहा है, हिमालय का पिघला हुआ हृदय ही है। यदि यह हृदय-कपाट
बद्ध या अवरुद्ध हो जाए तो नदी बेमौत मारी जाएगी। ऐसा कई बार हुआ है। एक दिन था जब सरस्वती नदी हरियाणा अंचल से बहती हुई सिंध में जाकर सरजल में मिलती थी।
परंतु बाद में उसको पोषित करने वाले ग्लेशियरों का मुख भिन्न-दिशा में हो गया, वे सरस्वती से विमुख होकर यमुना में ढल गए, आज भी यमुना की ओर ही वे जल-दान
प्रेरित कर रहे हैं। फलतः यमुना लबालब हो गई, सरस्वती की मृत्यु हो गई (आज की यमुना में ही सरस्वती का जल प्रवाहित है। पर साधारण मनुष्य को भूगोल की इतनी
बारीक जानकारी नहीं। अतः धार्मिक दृष्टि से त्रिवेणी संगम पर एक कल्पित अंत-सलिला का प्रतीक सरस्वती कूप बना दिया गया।) वस्तुतः सरस्वती का जल अब भी हम पा
रहे हैं, परंतु इस जल का अब गोत्रनाम 'यमुना जल' है... हिमवाह के अतिरिक्त नदी के बहते नीर का दूसरा स्रोत हैं परम व्योम में विचरण करने वाले मेघ। पर बरसाती
नदियों के लिए ही। बड़ी नदियों का जल स्रोत तो हिमवाह है। तो कहने का तात्पर्य यह है कि संस्कृत 'कूपजल' नहीं, भाषा और संस्कार दोनों की दृष्टि से यह हमारे
बोली और जीवन के प्रवाहमान रूपों के लिए व्योम-मेघ या हिमवाह स्वरूप है। हिंदुस्तानी आकाश में मेघ है, हिंदुस्तानी हिमालय का हृदय निरंतर गल रहा है, इसी से
हिंदुस्तानी जलधाराओं में मीठा बहता पानी निरंतर सुलभ है। इसी तरह देखें तो कहना पड़ेगा कि संस्कृत एक प्राणवान स्रोत के रूप में भाषा-संस्कृति आचार-विचार पर
दृष्टि से अस्तित्वमान है। इसी से 'यूनान, मिस्र, रोम' के मिट जाने पर भी हम नहीं मिटे हैं। हमारा अस्तित्वमान है। हमारा अस्तित्व कायम है।'
यों कबीर की बात जो पाजिटिव (हाँ - धर्मी) अर्थ है उसे मैं शत-प्रतिशत मानता हूँ कि लेखन में बोलचाल की भाषा का प्रयोग लेखन को स्वस्थ और सबल रखता है। एक उचित
संदर्भ में प्रयुक्त होने पर यह बात बिलकुल सही है। परंतु जब इसी बात का उपयोग हिंदी को जड़-मूल से छिन्न (रूटलेस) करने के लिए बदनीयती से किया जाता है तो बात
आपत्तिजनक हो जाती है। संदर्भ बदल देने से किसी भी बात का स्वाद और प्रहार भिन्न हो सकता है।
जब 'भाषा बहता नीर' का उपयोग कूट तर्क के लिए फिराक गोरखपुरी या कुछ नए लोग भी (जो खुद तो वैसी ही भाषा लिखते हैं जैसे हम और आप) करते हैं तब ये इस बात को एक
दुराग्रह के रूप में परिणत कर देते हैं। अतः कबीर की बातों का केवल सत्यग्राही अर्थ ही मुझे मंजूर है, चाहे यह बात हो या कोई और बात। स्वयं कबीर ने संस्कृत
का उपयोग किया है अपनी भाषा में। कबीर बहुत बड़े आदमी हैं। उनके खिलाफ कुछ कहना छोटे मुँह बड़ी बात जैसी हिमाकत होगी। परंतु कबीर भी कहीं न कहीं जाकर 'आम आदमी'
ही ठहरते हैं और 'संस्कृत भाषा कूपजल' वाली बात उसी 'आम आदमी' की खीझ है जबकि दूसरा वाक्यांश खीझ नहीं एक सूझ है। मैं भी मानता हूँ कि भाषा बहता नीर है, भाषा
मरुतप्राण है, खुले मैदान की ताजी हवा है, भाषा चिड़ियों के कंठ से निकला 'राम-राम के पहर' में सबेरे का कलरोर है, पशुओं के कंठ से रँभाता हुआ आवाहन है, उसका
हुंकार है, लोलुप श्वापदों के कंठ से निकला महातामसी गर्जन भी है। भाषा बच्चे की तोतली बोली भी है, माँ की वात्सल्य-भरी साँसें भी हैं, विरह-कातर
शोक-उच्छ्वास भी है और मुदितचक्षु सुख के क्षणों का मौन-मधु भी है। वज्र की कड़क से लेकर शब्दहीन मौन तक के सारे सहज स्वाभाविक व्यापारों को भाषा अपने
स्वभाव से धारण करके चलती है। इसी भाषा को वाक रूपा कामधेनु या भगवान मानकर वंदित किया है।
''देवी वाचमजयंत देवाः तां विश्वरूपा पशवो वदंति'' (अथर्व शीर्ष)। इसी बात को कबीर आदिभूत 'जल' के बिंब का आश्रय लेकर कहते है, 'भाषा बहता नीर' और यह सर्वथा
युक्तिपूर्ण बात है। पंरतु किसी भी सार्वभौम सत्य की तह में तह होती है। अतः क्रय-विक्रय हाट-बाजार एवं व्यावसायिक आवश्यकताओं से बाहर आकर जब हम
साहित्य-सर्जना के स्तर पर आते हैं, इस सार्वभौम सत्य 'भाषा बहता नीर' के सारे अंतर्निहित पटलों को खूब समझकर ही हमें इसे स्वीकार करना चाहिए। मैंने कबीर के
इस भाषा-सिद्धांत को अपने लेख में इसके 'सतही अर्थ' में नहीं बल्कि 'सर्वांग अर्थ' में ही स्वीकृत किया है। मैंने अपने लेखन में न केवल बाजारू हिंदी बल्कि
भोजपुरी से भी, जो मेरी अपनी बोली है, शब्द मुहावरे, भंगिमाओं की अभिव्यक्ति को माँग के अनुसार बेहिचक ग्रहण किया है। मैंने पूर्वी यू.पी. यानी गंगातीरी
काशिका क्षेत्र की लोक-संस्कृति को केंद्रित करके एक पुस्तक लिखी है 'निषाद बाँसुरी'। इस किताब में मैंने भारतवर्ष की पुनर्व्याख्या करने की चेष्टा कह है,
आर्येतर तत्वों पर जोर देकर। लोक-संस्कृति के विभिन्न दिकों को प्रस्तुत करते समय गाँव-देहात की शब्दावली का मैंने बेहिचक प्रयोग किया है। कबूतरबाजी,
अड्डाबाजी, चोरी, नौकायन के शब्दों से लेकर गाँव-देहात के अनेक मुहावरे उसमें आ गए हैं। उसमें ही नहीं, बल्कि संपूर्ण लेखन में मैंने शब्द-संपदा को महत्व
दिया है। जो शब्द जन-समाज के कंठ से निकला है, वह कभी भी, कहीं भी, 'अपवित्र' नहीं। अपवित्र या अश्लील स्वयं शब्द नहीं होते, बल्कि संदर्भ या उद्देश्य
अपवित्र या अश्लील होते हैं, ऐसा मैं मानकर चलता हूँ।
अतः 'भाषा बहता नीर' एक सही कथन होने के साथ-साथ सतही नहीं, गंभीर कथन है। इस कथन की गंभीरता पर जरा विचार करें। क्या यह 'बहता नीर' महज आज का यानी 1981 का ही
'बहता नीर' है। इतनी स्थूल और सतही दृष्टि से सोचना कबीर के एक महावाक्य को पुनः लॅंगड़ा और बौना कर देगा होगा। 'भाषा बहता नीर' है तो इसमें किसी भी युग, किसी
भी क्षेत्र का शब्द अंतर्भुक्त हो सकता है। शर्त यही है कि (1) अभिव्यक्ति की माँग उस शब्द की हो, (2) वह शब्द वाक्य में सहजता से खप जाए, देवता के प्रसाद
की पवित्र थाली में रखा हुआ 'आमलेट' जैसा विश्री न लगे, (3) अल्प प्रयत्न के बाद ही समझ में आ जाए। यों तीसरी शर्त का क्षेत्र भी संदर्भ के अनुसार निर्धारित
हो सकेगा। हर जगह 'दो आने तंबाकू दो' जैसी सरल बोधगम्य अभिव्यक्ति से काम नहीं चल सकता। परंतु हमारा आदर्श सहजता और बोधगम्यता ही होना चाहिए। बिना जरूरत भाषा
को दुरूह करना कबीर के इस महावाक्य की प्रकृति के प्रतिकूल होगा। पर जहाँ जरूरत हो, वहाँ भाषा के समग्र प्रवाह से, सर्वकालव्यापी प्रवाह से शब्द लेने का
हमारा अधिकार होना चाहिए। जो हमें इस अधिकार से वंचित करने के लिए कबीर की इस बात का सीमित बौना अर्थ लगाते हैं, वे किसी कूट मतलब से ऐसा कर रहे हैं। सर्वदा
1981 के बाजार में चालू शब्दों से ही हमारा काम नहीं चल सकता। लेखक फिल्मकार नहीं, वह शिक्षक भी है। उसका कर्तव्य जनमानस को ज्यादा से ज्यादा समृद्ध करना है।
और इस दृष्टि से वह नए शब्द अपने पाठकों को सिखाएगा ही। उसका दायित्व फिल्म-निर्माता के व्यवसायी दायित्व से बड़ा है।
कहने का तात्पर्य यह कि भाषा को अकारण दुरूह या कठिन नहीं बनाना चाहिए। परंतु सकारण ऐसा करने में कोई दोष नहीं। गोसाईं जी जब दार्शनिक विवेचन करने बैठते हैं तो
उसी 'मानस' की भाषा में ऐसी पंक्तियाँ भी लिखते हैं, ''होइ घुणाक्षर न्याय जिमि, पुनि प्रत्यूह अनेक।'' या कबीर को खुद जरूरत पड़ती है तो योगशास्त्र और
वेदांत की शब्दावली ग्रहण करते हैं। हर जगह लुकाठी हाथ में लिए सरे बाजार खड़े ही नहीं मिलते। मानसरोवर में डूबकर मोती ढूँढ़ते समय की भाषा बाजार वाली भाषा
नहीं। एक आधुनिक गद्य से उदाहरण दूँ और क्षमा किया जाए कि अपने ही लेखन से उद्धृत कर रहा हूँ। ''मैंने नदी की ओर अनिमेष लोचन दृष्टि से देखा।'' यहाँ पर 'अनिमेष
और लोचन' को क्षमा कर देने पर भी पाठक पूछेगा, यह 'अनिमेष' लोचन दृष्टि क्यों? क्या 'अनिमेष लोचनों से देखा' पर्याप्त नहीं होता? मेरी समझ में पर्याप्त नहीं
होता? पहली बात तो मुझे यह लगी कि वाक्य की अंतर्निहित लय एक और शब्द माँगती है, अतः 'दृष्टि' शब्द मैंने भर दिया। दूसरी बात यह है कि 'लोचनों' अर्थात् दो
लोचनों से देखना। यह दृष्टि के घनीभूत एकीकरण का बोध नहीं देती जो अनिमेष-लोचन दृष्टि देती है, दोनों आँखों का संयुक्त बल लेकर उपस्थित 'एक' दृष्टि के रूप में।
परंतु यह दोनों कारण उतने सटीक नहीं भी लिए जा सकते हैं पर तीसरा और मूल कारण ऐसा लिखने का यह है कि 'अनिमेष लोचन-दृष्टि' बौद्ध साहित्य में उस दृष्टि का नाम
है जिससे बुद्ध ने पहली बार बोधिवृक्ष को निहारा था। थके, हारे, निराश गौतम बुद्ध ने जब महाअरण्य के बोधिवृक्ष पर पहली नजर डाली तो लगा कि यही वृक्ष उनका परम
आश्रय है, यहीं पर परम विराम है, और परम शांति है और उसे वे निर्निमेष निहारने लगे। 'मैंने नदी की ओर अनिमेष-लोचन-दृष्टि से देखा' में ऐसे ही विशिष्ट रूप से
निहारने की क्रिया का संकेत है, नदी को परम आश्रय, परम प्रियतमा, परम देवता के रूप में ग्रहण करते हुए। इतना बड़ा भाव ही वहाँ अव्यक्त रह जाता यदि मैं लिखता,
''मैंने अनिमेष लोचनों से देखा'' या ''मैंने एकटक नदी की ओर देखना शुरू किया''। यों बिना इस गूढ़ अर्थ को जाने भी वाक्य को समझा जा सकता है। इसलिए मैंने इस
बिंब का प्रयोग करने में कोई हानि नहीं देखी-आखि़र ये शब्द तो हिंदी के 'बहता नीर' के ही अंग हैं, कोई 'जर्फरी तुफरी' तो नहीं जो कोई न समझे और निबंधकार का काम
होता है पाठक के मानसिक-बौद्धिक क्षितिज का विस्तार। वह फिल्म प्रोड्यूसर नहीं कि पाठक की बुद्धि-क्षमता की पूँछ को पकड़े-पकड़े चले। साहित्यकार पाठक की
उँगली पकड़कर नहीं चलता, बल्कि पाठक साहित्यकार की उँगली पकड़कर चलता है। सनातन से यही संबंध रहा है, आज जनवादीयुग का सस्ता नारा उठाकर इस संबंध को परिवर्तित
नहीं किया जा सकता।
'बाढ़ें कथा पार नहिं लहऊॅं'। अतः अंत में मुझे यही कहना है कि हिंदी की भूमिका आज बहुत बड़ी हो गई है। उसे आज वही काम करना है जो कभी संस्कृत करती थी और आज
जिसे एक खंडित रूप में ही सही अंग्रेजी कर रही हैं उच्च शिक्षित वर्ग के मध्य। उसे संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान का वाहन बनना है, उसके अंदर वैसी आंतरिक ऋद्धि-सिद्धि
लानी है जो भारत जैसे महान और विशाल देश की राष्ट्रभाषा के लिए अपेक्षित है। अतः 'बहता नीर' का चालू सतही अर्थ न लेकर उसे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना
होगा, जिसका आभास ऊपर दिया जा चुका है। सधुक्कड़ी और चुनाव-भाषणों से ज्यादा बृहत्तर दायित्व है इस हिंदी का। यह स्मरण रखते हुए हम भाषा के संबंध में चिंतन
करें तो अच्छा होगा। जिसको हम 'बहता नीर' मानकर ग्रहण कर रहे हैं, वह वस्तुतः हिमालय का दान है, हिमालय के पुत्र हिमवाहों का दान है और अनंतशायी समुद्र की
वाष्प-लक्ष्मी का दान है। नदी तो माँ ही है, अतः उसको नमोनमः पर साथ ही दिशिदेवतात्मा हिमालय को नमोनमः, उसके पुत्र बलशाही हिमवाहों को नमोनमः, और सिंधु एवं
व्योम को भी नमोनमः, साथ ही नदी की अनेक धाराओं, उपधाराओं और सहायक नदियों, रामगंगा-गोमती-बेसी-मंघई-तमसा और सरयू को नमोनमः। अर्थात् हिंदी की आंचलिक बोलियों
को, भोजपुरी, मगही, अवधी, छत्तीसगढ़ी, ब्रजभाषा आदि-आदि को हम इस 'बहता नीर' का अंग ही मानते हैं। पीका, सीका, बेहन, गाछ, पुली, गुदारा, (भा भिनुसार गुदारा
लागा) जैसे शब्द खड़ी बोली के पास कहाँ हैं! धरहर, अदहन, पगहा जैसे भोजपुरी शब्दों का प्रयोग मैंने किया है। 'पगहा' अर्थात जो 'चरण' (गति) को ही ध्वस्त कर
दे, अपहृत कर ले यानी पशु के बाँधते की रस्सी। ऐसे अभिव्यक्तिपूर्ण शब्द खड़ी बोली में मिलने दुर्लभ हैं। हम न केवल आंचलिक बोलियाँ, बल्कि अगल-बगल की भाषाओं
से यथा पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, असमिया, बँगला, से भी शब्द और मुहावरे ले सकते हैं। 'दूर के ढोल सुहावने' के साथ-साथ असमिया 'पहाड़ दूर से ही सुंदर लगात
है' भी मजे में चल सकता है।
संस्कृत भाषा के समृद्ध तथा अभिव्यक्ति-क्षम होने का रहस्य है यही भूमावृत्ति अर्थात शब्द-संपदा को चारों दिशाओं से आहरण करने की वृत्ति। यही कारण है कि
संस्कृत में एक शब्द के अनेक पर्याय हैं। ये पर्याय मूल रूप से विभिन्न भारतीय अंचलों से प्राप्त उस शब्द के लिए क्षेत्रीय प्रतिशब्द मात्र हैं। इस संदर्भ
में अपनी एक आपबीती सुनाऊँ। कुछ वर्ष पूर्व मद्रास की और यात्रा कर रहा था हावड़ा-पुरी मार्ग से। गाड़ी उड़ीसा से दक्षिणी भागों में चल रही थी कि एक छोटे से
स्टेशन पर (नाम स्मरण नहीं) एक आदमी खिड़की के पास चिल्लाता हुआ गुजरा, 'कडली, कडली'। मेरी समझ नहीं आया कि वह 'कडली' क्या बला है? या 'भाषा बहता नीर' की
शैली में कहें तो मेरे भोजपुरी मन से मुझसे प्रश्न किया 'ई' 'सारे' का कह रहा है? 'टुटी-फुटी' बँगला में पूछा, 'कडली की जिनिस?' प्रत्युत्तर में मेरी नाक के
सामने पके केले की घोर झुलाकर दिखाने लगा, 'कडली-कडली।' बाद में पता चला कि वह कह रहा है - 'कदली' पर आकर्षण के लिए उच्चारण को अपनी ओर से रच रहा है 'कडली' के
रूप में। तब मैंने 'शिक्षित उड़ीसा सज्जन' से कहा, ''सर, दिस इज द पीपुल्स-वर्ड हियर'' (महाशय, यहाँ यह सामान्य बोली का शब्द है।) इसका अर्थ हुआ कि संस्कृत
में जो शब्द पयार्यवाची रूप में आए हैं, वे सब कहीं न कहीं की जनभाषा के सामान्य शब्द ही हैं। संस्कृत में जब परंपरा रही है तो वह उसकी उत्तराधिकारिणी हिंदी
में भी चलनी ही चाहिए। प्रयोग की रगड़ खाते-खाते 25 या 50 वर्ष में शब्द परिचित हो जाएँगे। तात्पर्य यह है कि अभिधा-लक्षण-व्यंजना की जरूरतों के अनुसार हिंदी
भाषा को विकसित करने के लिए 'भाषा बहता नीर' के साथ-साथ 'भूमावृत्ति' को भी समान महत्व दिया जाए। सरलता यदि दरिद्रता का पर्याय हो जाए तो वह हमें मंजूर नहीं।
सरलता और समृद्धि दोनों चाहिए।